Friday 24 October 2014

नक्सलवाद नक्सलवाद की चुनौती Wed, 24 Sep 2014 हाल के दिनों में गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने भारत में नक्सलवादी-माओवादी उभार के खतरे को खत्म करने के मद्देनजर सारंडा मॉडल का जिक्र किया। सारंडा मॉडल नक्सली क्षेत्रों में आमूल-चूल परिवर्तन की दिशा में एक सफल उदाहरण है। इस संदर्भ में उन्होंने कहा है कि देश के कुछ नक्सली क्षेत्रों में अंतरराष्ट्रीय साजिश रची जा रही है, जिससे निपटने के लिए अर्धसैनिक बलों और स्थानीय पुलिस को कड़े कदम उठाने होंगे। हैरत की बात है कि मौजूदा प्रधानमंत्री इस मसले पर चुप हैं, लेकिन उनके पूर्ववर्ती मनमोहन सिंह ने लगातार इस बात पर बल दिया कि यह भारत की आंतरिक सुरक्षा के मद्देनजर सबसे गंभीर चुनौती है और इसके मूलभूत सामाजिक-आर्थिक के साथ-साथ सामाजिक-राजनीतिक पहलू भी हैं। फिलहाल देश के 88 जिलों की 31,400 ग्राम पंचायतों और 1,19,000 गांवों में वामपंथी चरमपंथ का प्रभाव है। इस समस्या से जो राज्य सर्वाधिक प्रभावित हैं उनमें झारखंड के कुल 24 में से 17 जिले, ओड़िशा के कुल 30 जिलों में से 18 और छत्ताीसगढ़ के कुल 27 में से 14 जिले शामिल हैं। इसी तरह पश्चिम बंगाल के 19 में 3 जिले, बिहार के 38 में 11, महाराष्ट्र के 36 में से 4, आंध्र प्रदेश के 13 में से 4, तेलंगाना के 10 में से 4, मध्य प्रदेश के 51 में से 11 जिले और उत्तार प्रदेश के 3 जिले भी इस समस्या से ग्रस्त है। इस मामले में सभी राज्यों की अपनी पृष्ठभूमि है, जैसे बिहार में जाति की प्रभावी भूमिका है। यहां पांच मुख्य लक्षण हैं जो इन क्षेत्रों में विशेष तौर से मेल खाते हैं। पहली बात यह कि इन क्षेत्रों में अनुसूचित जनजातियों की संख्या काफी है और यह बहुमत में है। दूसरी बात यह कि जनजातीय बहुल इन इलाकों में काफी सघन वन हैं। तीसरी बात माओवाद प्रभावित इन जिलों में प्रचुर मात्रा में खनिज उपलब्ध हैं, जिनमें कोयला, बॉक्साइट और लौह अयस्क शामिल हैं। चौथी बात कई राच्यों में माओवाद प्रभावित जिले राजनीतिक सत्ता की पहुंच से बहुत दूर हैं और इनका आकार बड़ा है। पांचवीं बात यह है कि बुरी तौर पर प्रभावित ऐसे तमाम क्षेत्र दो या तीन राच्यों के सीमावर्ती इलाकों में स्थित हैं। माओवादी विरोधी कोई भी रणनीति बनाते समय हमें इन बातों को ध्यान में रखना होगा। भारतीय राच्यों के इन नक्सल प्रभावित इलाकों में केंद्रीय अर्धसैनिक बलों की 71 बटालियनें और तकरीबन 71,000 सुरक्षा बलों को तैनात किया गया है। राच्य पुलिस बलों को सहयोग देने के मामले में इनकी बड़ी भूमिका है, जिन्हें खुफिया जानकारियों को इकट्ठा करने और माओवादियों के खिलाफ चलाए जाने वाले अभियानों में अनिवार्य रूप से आगे अथवा प्रथम पंक्ति में होना चाहिए। यही कारण है कि पिछले तीन दशकों से आंध्र प्रदेश इस समस्या से प्रभावी रूप से निपटने में सफल रहा है। इस समस्या से निपटने के लिए महज सुरक्षा अभियान काफी नहीं होंगे और ऐसा हो भी नहीं सकता। लोगों की दिनप्रतिदिन की समस्याओं के समाधान और विकास कायरें के माध्यम से ही हम इसका स्थायी समाधान खोज सकते हैं। ऐसा इसलिए, क्योंकि इनके अभाव में यहां के लोग खुद को अलग-थलग महसूस करते हैं। वन प्रशासन अथवा प्रबंधन में व्यापक सुधार करके जनजातीय परिवारों के समक्ष आने वाली दिनप्रतिदिन की समस्याओं का समाधान आज वक्त की मांग है। वन नौकरशाही इन जनजातीय लोगों को अनावश्यक रूप से परेशान करती है, क्योंकि राच्य दर राच्य यह लोग भटकते रहते हैं अथवा आते-जाते रहते हैं। पिछले पांच दशकों में खनन और सिंचाई परियोजनाओं के कारण बड़े पैमाने पर इन्हें विस्थापित होना पड़ा है। बड़े पैमाने पर विस्थापित इन लोगों को पुनर्वास और पुनस्र्थापना के माध्यम से अभी भी संतुष्ट करना शेष है। सबसे खराब बात यह है कि इन जनजातीय वगरें को बार-बार विस्थापन का दंश झेलना पड़ रहा है। संसद द्वारा 2013 में पारित किए गए नए भूमि अधिग्रहण कानून के माध्यम से चीजों को दीर्घकालिक दृष्टि से सही रूप में हल करने की कोशिश की गई, लेकिन बाद में इसे कमजोर करने का काम किया गया। यदि ऐसा कुछ होता है तो माओवादियों को दुष्प्रचार करने का मौका मिलेगा। वास्तव में यह नक्सली नहीं हैं जिन्होंने अपनी विचारधारा को स्वीकृत कराने के लिए अनुकूल जमीन तैयार की, बल्कि यह सतत रूप से सरकारों की विफलता है जिनमें प्रभावित राच्यों के साथ ही केंद्र सरकार भी शामिल है। सरकारें गरीबों की मानवीय गरिमा और उनके संवैधानिक अधिकारों की रक्षा कर पाने में विफल रही हैं और इसी के परिणामस्वरूप हिंसा के फैलाव के लिए अनुकूल जमीन तैयार हुई, जिसने सामाजिक कल्याण के नाम पर नक्सलियों को मुखर होने का मौका दिया। इसी का जामा पहनकर नक्सलियों ने गुरिल्ला लड़ाई का आधार तैयार किया और लोगों की भर्तियां कीं। सबसे दुखद बात यह है कि इसमें महिलाओं और बच्चों को भी शामिल किया गया। यह संभव है कि चरमपंथी समूहों को विदेशों से वित्ताीय और हथियारों की मदद मिल रही हो, लेकिन जमीनी सच्चाई यही है कि उनके विस्तार अथवा प्रभाव वृद्धि में घरेलू वजहें कहीं अधिक जिम्मेदार हैं और इसमें जनजातियों में व्याप्त असंतोष, उनके साथ भेदभाव और विस्थापन की समस्या मुख्य हैं। इस संदर्भ में तमाम सफल कहानियां हैं जिनसे हम सबक सीख सकते हैं। महाराष्ट्र के गढ़चिरौली जिले के मेंडा लेखा गांव में ग्रामसभा को खेती और बांस के व्यापार में पूर्ण नियंत्रण दिया गया है। माओवादी इसे पसंद नहीं करते, लेकिन ग्रामसभा इससे वित्ताीय रूप से सशक्त हुई है। इसी तरह सामुदायिक वन अधिकारों में सुधार और कानून में बदलाव के जो भी प्रयास किए गए हैं उनका अनुसरण किया जा सकता है। इस संदर्भ में बदलाव का सर्वाधिक बेहतरीन उदाहरण झारखंड के पश्चिमी सिंहभूमि जिले के सारंडा क्षेत्र का है। जुलाई-अगस्त 2011 में सीआरपीएफ द्वारा दो दशकों तक माओवादी प्रभाव में रहे इस इलाके को मुक्त कराए जाने के बाद ग्रामीण विकास मंत्रालय ने बड़ी संख्या में विकास योजनाओं की शुरुआत की, जिनमें रोजगार सृजन, सड़क, घर निर्माण, जल आपूर्ति, वर्षाजल प्रबंधन, जीवनस्तर को बेहतर बनाने के साथ महिलाओं के लिए स्वयं सहायता समूहों की शुरुआत की गई। नागरिक प्रशासन की विश्वसनीयता बहाल की गई। इससे सकारात्मक बदलाव हुआ और एक नए विश्वास का संचार हुआ। सारंडा मॉडल को झारखंड, पश्चिमी बंगाल और ओड़िशा के भी कुछ इलाकों में अपनाया गया। बंगाल में ऐसी ही पहल करते हुए माओवादियों के गढ़ जंगलमहल क्षेत्र में राजनीतिक गतिविधियों को बहाल किया। यह बहुत महत्वपूर्ण बात है। इससे माओवादी ढांचा कमजोर हुआ। जहां-जहां राजनीतिक पार्टियों ने अपनी स्वाभाविक भूमिका निभानी छोड़ी वहां-वहां चरमपंथी संगठनों ने खाली स्थान को भरने का काम किया। अकेले विकासवादी रणनीति काफी नहीं होगी और न ही अर्धसैनिक बलों पर आधारित रणनीति पर्याप्त होगी। पूर्व की गलतियों में सुधार और जनजातीय समुदायों की चिंताओं पर ध्यान दिए बिना हम नक्सलवाद को समूल नष्ट नहीं कर सकते। [लेखक जयराम रमेश, पूर्व केंद्रीय मंत्री हैं]नक्सलवाद की चुनौती Wed, 24 Sep 2014 हाल के दिनों में गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने भारत में नक्सलवादी-माओवादी उभार के खतरे को खत्म करने के मद्देनजर सारंडा मॉडल का जिक्र किया। सारंडा मॉडल नक्सली क्षेत्रों में आमूल-चूल परिवर्तन की दिशा में एक सफल उदाहरण है। इस संदर्भ में उन्होंने कहा है कि देश के कुछ नक्सली क्षेत्रों में अंतरराष्ट्रीय साजिश रची जा रही है, जिससे निपटने के लिए अर्धसैनिक बलों और स्थानीय पुलिस को कड़े कदम उठाने होंगे। हैरत की बात है कि मौजूदा प्रधानमंत्री इस मसले पर चुप हैं, लेकिन उनके पूर्ववर्ती मनमोहन सिंह ने लगातार इस बात पर बल दिया कि यह भारत की आंतरिक सुरक्षा के मद्देनजर सबसे गंभीर चुनौती है और इसके मूलभूत सामाजिक-आर्थिक के साथ-साथ सामाजिक-राजनीतिक पहलू भी हैं। फिलहाल देश के 88 जिलों की 31,400 ग्राम पंचायतों और 1,19,000 गांवों में वामपंथी चरमपंथ का प्रभाव है। इस समस्या से जो राज्य सर्वाधिक प्रभावित हैं उनमें झारखंड के कुल 24 में से 17 जिले, ओड़िशा के कुल 30 जिलों में से 18 और छत्ताीसगढ़ के कुल 27 में से 14 जिले शामिल हैं। इसी तरह पश्चिम बंगाल के 19 में 3 जिले, बिहार के 38 में 11, महाराष्ट्र के 36 में से 4, आंध्र प्रदेश के 13 में से 4, तेलंगाना के 10 में से 4, मध्य प्रदेश के 51 में से 11 जिले और उत्तार प्रदेश के 3 जिले भी इस समस्या से ग्रस्त है। इस मामले में सभी राज्यों की अपनी पृष्ठभूमि है, जैसे बिहार में जाति की प्रभावी भूमिका है। यहां पांच मुख्य लक्षण हैं जो इन क्षेत्रों में विशेष तौर से मेल खाते हैं। पहली बात यह कि इन क्षेत्रों में अनुसूचित जनजातियों की संख्या काफी है और यह बहुमत में है। दूसरी बात यह कि जनजातीय बहुल इन इलाकों में काफी सघन वन हैं। तीसरी बात माओवाद प्रभावित इन जिलों में प्रचुर मात्रा में खनिज उपलब्ध हैं, जिनमें कोयला, बॉक्साइट और लौह अयस्क शामिल हैं। चौथी बात कई राच्यों में माओवाद प्रभावित जिले राजनीतिक सत्ता की पहुंच से बहुत दूर हैं और इनका आकार बड़ा है। पांचवीं बात यह है कि बुरी तौर पर प्रभावित ऐसे तमाम क्षेत्र दो या तीन राच्यों के सीमावर्ती इलाकों में स्थित हैं। माओवादी विरोधी कोई भी रणनीति बनाते समय हमें इन बातों को ध्यान में रखना होगा। भारतीय राच्यों के इन नक्सल प्रभावित इलाकों में केंद्रीय अर्धसैनिक बलों की 71 बटालियनें और तकरीबन 71,000 सुरक्षा बलों को तैनात किया गया है। राच्य पुलिस बलों को सहयोग देने के मामले में इनकी बड़ी भूमिका है, जिन्हें खुफिया जानकारियों को इकट्ठा करने और माओवादियों के खिलाफ चलाए जाने वाले अभियानों में अनिवार्य रूप से आगे अथवा प्रथम पंक्ति में होना चाहिए। यही कारण है कि पिछले तीन दशकों से आंध्र प्रदेश इस समस्या से प्रभावी रूप से निपटने में सफल रहा है। इस समस्या से निपटने के लिए महज सुरक्षा अभियान काफी नहीं होंगे और ऐसा हो भी नहीं सकता। लोगों की दिनप्रतिदिन की समस्याओं के समाधान और विकास कायरें के माध्यम से ही हम इसका स्थायी समाधान खोज सकते हैं। ऐसा इसलिए, क्योंकि इनके अभाव में यहां के लोग खुद को अलग-थलग महसूस करते हैं। वन प्रशासन अथवा प्रबंधन में व्यापक सुधार करके जनजातीय परिवारों के समक्ष आने वाली दिनप्रतिदिन की समस्याओं का समाधान आज वक्त की मांग है। वन नौकरशाही इन जनजातीय लोगों को अनावश्यक रूप से परेशान करती है, क्योंकि राच्य दर राच्य यह लोग भटकते रहते हैं अथवा आते-जाते रहते हैं। पिछले पांच दशकों में खनन और सिंचाई परियोजनाओं के कारण बड़े पैमाने पर इन्हें विस्थापित होना पड़ा है। बड़े पैमाने पर विस्थापित इन लोगों को पुनर्वास और पुनस्र्थापना के माध्यम से अभी भी संतुष्ट करना शेष है। सबसे खराब बात यह है कि इन जनजातीय वगरें को बार-बार विस्थापन का दंश झेलना पड़ रहा है। संसद द्वारा 2013 में पारित किए गए नए भूमि अधिग्रहण कानून के माध्यम से चीजों को दीर्घकालिक दृष्टि से सही रूप में हल करने की कोशिश की गई, लेकिन बाद में इसे कमजोर करने का काम किया गया। यदि ऐसा कुछ होता है तो माओवादियों को दुष्प्रचार करने का मौका मिलेगा। वास्तव में यह नक्सली नहीं हैं जिन्होंने अपनी विचारधारा को स्वीकृत कराने के लिए अनुकूल जमीन तैयार की, बल्कि यह सतत रूप से सरकारों की विफलता है जिनमें प्रभावित राच्यों के साथ ही केंद्र सरकार भी शामिल है। सरकारें गरीबों की मानवीय गरिमा और उनके संवैधानिक अधिकारों की रक्षा कर पाने में विफल रही हैं और इसी के परिणामस्वरूप हिंसा के फैलाव के लिए अनुकूल जमीन तैयार हुई, जिसने सामाजिक कल्याण के नाम पर नक्सलियों को मुखर होने का मौका दिया। इसी का जामा पहनकर नक्सलियों ने गुरिल्ला लड़ाई का आधार तैयार किया और लोगों की भर्तियां कीं। सबसे दुखद बात यह है कि इसमें महिलाओं और बच्चों को भी शामिल किया गया। यह संभव है कि चरमपंथी समूहों को विदेशों से वित्ताीय और हथियारों की मदद मिल रही हो, लेकिन जमीनी सच्चाई यही है कि उनके विस्तार अथवा प्रभाव वृद्धि में घरेलू वजहें कहीं अधिक जिम्मेदार हैं और इसमें जनजातियों में व्याप्त असंतोष, उनके साथ भेदभाव और विस्थापन की समस्या मुख्य हैं। इस संदर्भ में तमाम सफल कहानियां हैं जिनसे हम सबक सीख सकते हैं। महाराष्ट्र के गढ़चिरौली जिले के मेंडा लेखा गांव में ग्रामसभा को खेती और बांस के व्यापार में पूर्ण नियंत्रण दिया गया है। माओवादी इसे पसंद नहीं करते, लेकिन ग्रामसभा इससे वित्ताीय रूप से सशक्त हुई है। इसी तरह सामुदायिक वन अधिकारों में सुधार और कानून में बदलाव के जो भी प्रयास किए गए हैं उनका अनुसरण किया जा सकता है। इस संदर्भ में बदलाव का सर्वाधिक बेहतरीन उदाहरण झारखंड के पश्चिमी सिंहभूमि जिले के सारंडा क्षेत्र का है। जुलाई-अगस्त 2011 में सीआरपीएफ द्वारा दो दशकों तक माओवादी प्रभाव में रहे इस इलाके को मुक्त कराए जाने के बाद ग्रामीण विकास मंत्रालय ने बड़ी संख्या में विकास योजनाओं की शुरुआत की, जिनमें रोजगार सृजन, सड़क, घर निर्माण, जल आपूर्ति, वर्षाजल प्रबंधन, जीवनस्तर को बेहतर बनाने के साथ महिलाओं के लिए स्वयं सहायता समूहों की शुरुआत की गई। नागरिक प्रशासन की विश्वसनीयता बहाल की गई। इससे सकारात्मक बदलाव हुआ और एक नए विश्वास का संचार हुआ। सारंडा मॉडल को झारखंड, पश्चिमी बंगाल और ओड़िशा के भी कुछ इलाकों में अपनाया गया। बंगाल में ऐसी ही पहल करते हुए माओवादियों के गढ़ जंगलमहल क्षेत्र में राजनीतिक गतिविधियों को बहाल किया। यह बहुत महत्वपूर्ण बात है। इससे माओवादी ढांचा कमजोर हुआ। जहां-जहां राजनीतिक पार्टियों ने अपनी स्वाभाविक भूमिका निभानी छोड़ी वहां-वहां चरमपंथी संगठनों ने खाली स्थान को भरने का काम किया। अकेले विकासवादी रणनीति काफी नहीं होगी और न ही अर्धसैनिक बलों पर आधारित रणनीति पर्याप्त होगी। पूर्व की गलतियों में सुधार और जनजातीय समुदायों की चिंताओं पर ध्यान दिए बिना हम नक्सलवाद को समूल नष्ट नहीं कर सकते। [लेखक जयराम रमेश, पूर्व केंद्रीय मंत्री हैं]नक्सलवाद की चुनौती Wed, 24 Sep 2014 हाल के दिनों में गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने भारत में नक्सलवादी-माओवादी उभार के खतरे को खत्म करने के मद्देनजर सारंडा मॉडल का जिक्र किया। सारंडा मॉडल नक्सली क्षेत्रों में आमूल-चूल परिवर्तन की दिशा में एक सफल उदाहरण है। इस संदर्भ में उन्होंने कहा है कि देश के कुछ नक्सली क्षेत्रों में अंतरराष्ट्रीय साजिश रची जा रही है, जिससे निपटने के लिए अर्धसैनिक बलों और स्थानीय पुलिस को कड़े कदम उठाने होंगे। हैरत की बात है कि मौजूदा प्रधानमंत्री इस मसले पर चुप हैं, लेकिन उनके पूर्ववर्ती मनमोहन सिंह ने लगातार इस बात पर बल दिया कि यह भारत की आंतरिक सुरक्षा के मद्देनजर सबसे गंभीर चुनौती है और इसके मूलभूत सामाजिक-आर्थिक के साथ-साथ सामाजिक-राजनीतिक पहलू भी हैं। फिलहाल देश के 88 जिलों की 31,400 ग्राम पंचायतों और 1,19,000 गांवों में वामपंथी चरमपंथ का प्रभाव है। इस समस्या से जो राज्य सर्वाधिक प्रभावित हैं उनमें झारखंड के कुल 24 में से 17 जिले, ओड़िशा के कुल 30 जिलों में से 18 और छत्ताीसगढ़ के कुल 27 में से 14 जिले शामिल हैं। इसी तरह पश्चिम बंगाल के 19 में 3 जिले, बिहार के 38 में 11, महाराष्ट्र के 36 में से 4, आंध्र प्रदेश के 13 में से 4, तेलंगाना के 10 में से 4, मध्य प्रदेश के 51 में से 11 जिले और उत्तार प्रदेश के 3 जिले भी इस समस्या से ग्रस्त है। इस मामले में सभी राज्यों की अपनी पृष्ठभूमि है, जैसे बिहार में जाति की प्रभावी भूमिका है। यहां पांच मुख्य लक्षण हैं जो इन क्षेत्रों में विशेष तौर से मेल खाते हैं। पहली बात यह कि इन क्षेत्रों में अनुसूचित जनजातियों की संख्या काफी है और यह बहुमत में है। दूसरी बात यह कि जनजातीय बहुल इन इलाकों में काफी सघन वन हैं। तीसरी बात माओवाद प्रभावित इन जिलों में प्रचुर मात्रा में खनिज उपलब्ध हैं, जिनमें कोयला, बॉक्साइट और लौह अयस्क शामिल हैं। चौथी बात कई राच्यों में माओवाद प्रभावित जिले राजनीतिक सत्ता की पहुंच से बहुत दूर हैं और इनका आकार बड़ा है। पांचवीं बात यह है कि बुरी तौर पर प्रभावित ऐसे तमाम क्षेत्र दो या तीन राच्यों के सीमावर्ती इलाकों में स्थित हैं। माओवादी विरोधी कोई भी रणनीति बनाते समय हमें इन बातों को ध्यान में रखना होगा। भारतीय राच्यों के इन नक्सल प्रभावित इलाकों में केंद्रीय अर्धसैनिक बलों की 71 बटालियनें और तकरीबन 71,000 सुरक्षा बलों को तैनात किया गया है। राच्य पुलिस बलों को सहयोग देने के मामले में इनकी बड़ी भूमिका है, जिन्हें खुफिया जानकारियों को इकट्ठा करने और माओवादियों के खिलाफ चलाए जाने वाले अभियानों में अनिवार्य रूप से आगे अथवा प्रथम पंक्ति में होना चाहिए। यही कारण है कि पिछले तीन दशकों से आंध्र प्रदेश इस समस्या से प्रभावी रूप से निपटने में सफल रहा है। इस समस्या से निपटने के लिए महज सुरक्षा अभियान काफी नहीं होंगे और ऐसा हो भी नहीं सकता। लोगों की दिनप्रतिदिन की समस्याओं के समाधान और विकास कायरें के माध्यम से ही हम इसका स्थायी समाधान खोज सकते हैं। ऐसा इसलिए, क्योंकि इनके अभाव में यहां के लोग खुद को अलग-थलग महसूस करते हैं। वन प्रशासन अथवा प्रबंधन में व्यापक सुधार करके जनजातीय परिवारों के समक्ष आने वाली दिनप्रतिदिन की समस्याओं का समाधान आज वक्त की मांग है। वन नौकरशाही इन जनजातीय लोगों को अनावश्यक रूप से परेशान करती है, क्योंकि राच्य दर राच्य यह लोग भटकते रहते हैं अथवा आते-जाते रहते हैं। पिछले पांच दशकों में खनन और सिंचाई परियोजनाओं के कारण बड़े पैमाने पर इन्हें विस्थापित होना पड़ा है। बड़े पैमाने पर विस्थापित इन लोगों को पुनर्वास और पुनस्र्थापना के माध्यम से अभी भी संतुष्ट करना शेष है। सबसे खराब बात यह है कि इन जनजातीय वगरें को बार-बार विस्थापन का दंश झेलना पड़ रहा है। संसद द्वारा 2013 में पारित किए गए नए भूमि अधिग्रहण कानून के माध्यम से चीजों को दीर्घकालिक दृष्टि से सही रूप में हल करने की कोशिश की गई, लेकिन बाद में इसे कमजोर करने का काम किया गया। यदि ऐसा कुछ होता है तो माओवादियों को दुष्प्रचार करने का मौका मिलेगा। वास्तव में यह नक्सली नहीं हैं जिन्होंने अपनी विचारधारा को स्वीकृत कराने के लिए अनुकूल जमीन तैयार की, बल्कि यह सतत रूप से सरकारों की विफलता है जिनमें प्रभावित राच्यों के साथ ही केंद्र सरकार भी शामिल है। सरकारें गरीबों की मानवीय गरिमा और उनके संवैधानिक अधिकारों की रक्षा कर पाने में विफल रही हैं और इसी के परिणामस्वरूप हिंसा के फैलाव के लिए अनुकूल जमीन तैयार हुई, जिसने सामाजिक कल्याण के नाम पर नक्सलियों को मुखर होने का मौका दिया। इसी का जामा पहनकर नक्सलियों ने गुरिल्ला लड़ाई का आधार तैयार किया और लोगों की भर्तियां कीं। सबसे दुखद बात यह है कि इसमें महिलाओं और बच्चों को भी शामिल किया गया। यह संभव है कि चरमपंथी समूहों को विदेशों से वित्ताीय और हथियारों की मदद मिल रही हो, लेकिन जमीनी सच्चाई यही है कि उनके विस्तार अथवा प्रभाव वृद्धि में घरेलू वजहें कहीं अधिक जिम्मेदार हैं और इसमें जनजातियों में व्याप्त असंतोष, उनके साथ भेदभाव और विस्थापन की समस्या मुख्य हैं। इस संदर्भ में तमाम सफल कहानियां हैं जिनसे हम सबक सीख सकते हैं। महाराष्ट्र के गढ़चिरौली जिले के मेंडा लेखा गांव में ग्रामसभा को खेती और बांस के व्यापार में पूर्ण नियंत्रण दिया गया है। माओवादी इसे पसंद नहीं करते, लेकिन ग्रामसभा इससे वित्ताीय रूप से सशक्त हुई है। इसी तरह सामुदायिक वन अधिकारों में सुधार और कानून में बदलाव के जो भी प्रयास किए गए हैं उनका अनुसरण किया जा सकता है। इस संदर्भ में बदलाव का सर्वाधिक बेहतरीन उदाहरण झारखंड के पश्चिमी सिंहभूमि जिले के सारंडा क्षेत्र का है। जुलाई-अगस्त 2011 में सीआरपीएफ द्वारा दो दशकों तक माओवादी प्रभाव में रहे इस इलाके को मुक्त कराए जाने के बाद ग्रामीण विकास मंत्रालय ने बड़ी संख्या में विकास योजनाओं की शुरुआत की, जिनमें रोजगार सृजन, सड़क, घर निर्माण, जल आपूर्ति, वर्षाजल प्रबंधन, जीवनस्तर को बेहतर बनाने के साथ महिलाओं के लिए स्वयं सहायता समूहों की शुरुआत की गई। नागरिक प्रशासन की विश्वसनीयता बहाल की गई। इससे सकारात्मक बदलाव हुआ और एक नए विश्वास का संचार हुआ। सारंडा मॉडल को झारखंड, पश्चिमी बंगाल और ओड़िशा के भी कुछ इलाकों में अपनाया गया। बंगाल में ऐसी ही पहल करते हुए माओवादियों के गढ़ जंगलमहल क्षेत्र में राजनीतिक गतिविधियों को बहाल किया। यह बहुत महत्वपूर्ण बात है। इससे माओवादी ढांचा कमजोर हुआ। जहां-जहां राजनीतिक पार्टियों ने अपनी स्वाभाविक भूमिका निभानी छोड़ी वहां-वहां चरमपंथी संगठनों ने खाली स्थान को भरने का काम किया। अकेले विकासवादी रणनीति काफी नहीं होगी और न ही अर्धसैनिक बलों पर आधारित रणनीति पर्याप्त होगी। पूर्व की गलतियों में सुधार और जनजातीय समुदायों की चिंताओं पर ध्यान दिए बिना हम नक्सलवाद को समूल नष्ट नहीं कर सकते। [लेखक जयराम रमेश, पूर्व केंद्रीय मंत्री हैं]




उग्रवादी होने का महत्व

06, AUG, 2014, WEDNESDAY

कुलदीप नैय्यर 
अमित शाह संघ परिवार के कठिन शब्दों की सूची में एक नया नाम हैं। इसका मतलब होता है वफादारी। बेशक, शाह प्रधानमंत्री मोदी के सबसे बड़े चहेते हैं। लेकिन अपने मालिक मोदी के प्रति अंधभक्ति उन्हें बाकी लोगों से अलग करती है।  अमित शाह को देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में लोगों को बांटने का भार दिया गया था। उन्होंने हाल ही में हुए लोकसभा चुनावों में 80 में से 71 सीटें भारतीय जनता पार्टी के लिए जिताए। मोदी ने शाह को भाजपा के अध्यक्ष पद पर इसलिए रखा है कि वे सारे देश में लोगों के बांटने वाले विचार या हिंदुत्व को फैलाएं। उनकी नियुक्ति से यह बात साफ हो गई है कि कट्टरपंथियों के प्रति विरोध इस कदर खत्म हो गया कि शाह जैसा एक कट्टरपंथी हिन्दू भी संघ परिवार में सर्वोच्च पद ले सकता है।  वह खुलकर आरएसएस के बीच सहमति बनाने की कोशिश कर रहे हैं। उदाहरण के तौर पर कप्तान सिंह सोलंकी जो एक पक्के आरएसएस हैं, की हरियाणा के गर्वनर के पद पर नियुक्ति। यह यही बताता है कि भाजपा आरएसएस के औजार के रूप में इस्तेमाल होना चाहती है। आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने यह कहकर कि संघ राजनीति में हिस्सा लेगा, इस समझ की पुष्टि कर दी है कि आरएसएस ने राजनीतिक गतविधियों में हिस्सा नहीं लेने का जो वचन दिया था वह उसके खिलाफ है। भारतीय जनसंघ को अपना संविधान बदलना पड़ा था कि संगठन पूरी तरह सांस्कृतिक कार्य के प्रति समर्पित रहेगा। सोलंकी की नियुक्ति एक और संदेश देती है कि भाजपा तथा आरएसएस में कोई फर्क नहीं है, उदारवादी और कट्टरपंथी। दोनों एक सिक्के के दो पहलू हैं। भले ही मोदी ने हिन्दुत्व को तेज गति से आगे बढ़ाने के लिए कोई कदम नहीं उठाया हो, उनके प्रधानमंत्री पद बनने से आरएसएस के तत्वों का उत्साह बढ़ गया है।  उनका उत्साह इतना बढ़ा है कि टेनिस में भारत की शान सानिया मिर्जा को भाजपा के एक सदस्य ने पाकिस्तानी कह दिया। यह मुसलमानों के लिए कठिन होगा कि हर समय वे देश के प्रति अपनी वफादारी साबित करते रहें। बेशक सानिया के पति पाकिस्तानी हैं, राष्ट्रीयता पर सवाल किए जाने से स्वाभाविक रूप से उसे चोट महसूस हुई है। एक तरह का हिन्दुत्व हरियाणा में देखने में देखने को मिला जब अलग शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमिटी (एसजी पीसी) राज्य के सभी गुरुद्वारों का और उन्हें मिलने वाले चढ़ावे पर नियंत्रण रखेगी। यह एक गंभीर मसला है जिस पर गंभीरतापूर्वक विचार होना चाहिए था कि पंजाब और हरियाणा के सिखों के भय को दूर करने का फार्मूला किस तरह खोजा जाए। आरएसएस सिखों को हिन्दू धर्म का हिस्सा मानता है। दूसरी ओर सिख इस विचार के खिलाफ हैं। प्ंाजाब के मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल की तीखी प्रतिक्रिया ने यही दिखाया कि समुदाय के बहुसंख्यक पंजाबी सिख उसमें कोई विभाजन नहीं देंगे जिसे वे पंथ, सिखों का धर्म कहते हैं। एक और दुर्भाग्यपूर्ण मतलब निकलता है कि भाजपा में उदारवादी तत्व बहुत कम संख्या में रह गए हैं। उन्हें आरएसएस के नेतृत्व के अलावा दूसरा विकल्प नहीं दिखाई देता है। संभव है आरएसएस और भाजपा के बीच दूरी की बात में वास्तविकता ही नहीं थी। लोगों के मन में स्थान बनाने के लिए यह  आरएसएस की रणनीति का हिस्सा था कि भारतीय समाज कठोर आरएसएस उदारवादी के बदले भाजपा को पसंद करे। हिन्दू धर्म की सहिष्णुता के बारे में जो समझ है वह करीब-करीब सच है। अगर ऐसा नहीं होता तो संविधान ने अपनी प्रस्तावना में यह नहीं कहा होता कि भारत एक सेकुलर देश होगा। इसका सबूत इसी से मिलता है कि अपनी बहुसंख्या के बावजूद 80 प्रतिशत हिन्दुओं ने उदार भारत के लिए मतदान किया।  इसका एक और संकेत मिलता है कि उदारपंथी मुसलमान नेता भी जीत नहीं पाए, जबकि समुदाय की आबादी 15 से 16 प्रतिशत है। इसका अशुभ पहलू है यह कि कट्टरपंथी और भी कठोर लाइन ले रहे हैं और उन्हें स्वीकृति मिल रही है अन्यथा शाह की पदोन्नति का कोई अर्थ नहीं है। केंद्र में भाजपा की जीत के बाद वह देश को दो ध्रुवों में बांटने में लगे हैं और यह पक्का करने में लगे हैं कि पार्टी आरएसएस या महाराष्ट्र की कट्टरपंथी शिवसेना से अपना रिश्ता नहीं तोड़े। शिवसेना के एक सांसद का एक रोजा रखने वाले मुसलमान को जबरन खिलाने की हाल की घटना बुरा असर डालने वाली है। अचरज की बात संबंधित सांसद और अन्य लोगों की ओर से दी गई सफाई है। कई सांसदों ने दोषी सांसद की निंदा नहीं की और बल्कि यह कहा कि महाराष्ट्र सदन में कितना खराब खाना मिलता है और यह अधिकारियों को बताने के लिए किया गया था। हालांकि सांसद ने माफी मांग ली, लेकिन पार्टी का यह काम नहीं था कि इस घटना की तुलना रमजान के दौरान कुछ मुसलमानों की ओर से बलात्कार का अपराध करने से करे। मोदी सरकार ने अंत में प्रतिक्रिया व्यक्त की और गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने घटना पर खेद प्रकट किया और दोहराया कि सरकार संविधान में दी गई धार्मिक आजादी  की रक्षा के लिए प्रतिबद्ध है। इसके बाबजूद इससे इंकार किया जा सकता है कि मोदी कुल मिलाकर हिन्दुत्व के पक्ष में हैं। वह गुजरात में अक्टूबर 2002 में हुए मुसलमान विरोधी दंगों से जुड़े हैं। वह कट्टर पाकिस्तान विरोधी और बंगलादेशी विरोधी के रूप में जाने जाते हैं। दोनों ही देश पाकिस्तान के पड़ोस में मुस्लिम गणतंत्र हैं। गुजरात के दंगों के दौरान अमित शाह उनके मंत्रिमंडल के सदस्य थे।  सौभाग्य से मोदी भी यह समझते हैं कि दोनों राष्ट्रों के साथ उनके अच्छे संबंध हों। अपने शपथ ग्रहण समारोह में पाकिस्तान, बंगलादेश और मालदीव को निमंत्रण भेजना यही दिखाता है, भारत के पड़ोसी देशों से अच्छे संबंध के रखने के लिए मोदी को अनेकता को मजबूत करना पड़ेगा। यह एक ऐसी चीज है जिसने उपमहाद्वीप के देशों को उदार वातावरण बनाए रखने में मदद की है। नई दिल्ली और बंगलादेश, दोनों कट्टरपंथियों जिसका प्रतिनिधित्व तालिबान करता है, के खिलाफ लड़ाई लड़ रहे हैं। इस्लामाबाद तो यही करता रहा है क्योंकि वह उसे कश्मीर में ''आजादी  की लड़ाई' के लिए इस्तेमाल करता है। मुस्लिम विश्व में फैल रहे कट्टरपंथ को समर्थन करने वाली एक मजबूत प्रभावशाली लाबी भी पाकिस्तान में है। मैं चाहता हूं कि दिल्ली हिन्दू तालिबान के खिलाफ कार्रवाई करे जो एक गंभीर ताकत के रूप में उभर रहा है।  उदार मुसलमान चाहे वे पाकिस्तान में हों या बंगलादेश में, तालिबान के खिलाफ लड़ाई के अपने निश्चय को लेकर सुस्ती नहीं दिखा सकते। तालिबान वाले चाहते हैं कि इस्लाम में सुधार के प्रयास छोड़ दिए जाएं। वे उस तरह के इस्लाम की ओर लौटना चाहते हैं जो 1400 साल पहले था। वे भी समझते हैं कि ऐसा करना संभव नहीं है। लेकिन उनकी रणनीति इस पर टिकी है कि चुनाव में जीतने वाले उम्मीदवार अनेकता का समर्थन करता हो। पाकिस्तान और बंगलादेश के शासक इतने यथार्थवादी जरूर हंै कि वे ऐसा कुछ नहीं करेंगे जो गैर-मुस्लिम मतदाताओं को डरा कर दूर भगाए।
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स्वर नम्र, तेवर गर्म

Thu, 25 Sep 2014

केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने नक्सलियों से निपटने के लिए नम्र स्वर में गर्म इरादे जताकर अत्यंत संतुलित संकेत और संदेश देकर अच्छा ही किया है। इसी मिशन पर रांची और सारंडा के दौरे पर आए गृह मंत्री ने केंद्र सरकार द्वारा बहुत पहले से कही जा रही बात दोहराई कि नक्सली हिंसा छोड़ दें तो उनको मुख्य धारा में लौटाने के लिए सरकार आसान शर्ते तय कर सकती है। अलबत्ता इस बात का गहरा निहितार्थ है कि सरकार अपनी ओर से कोई हिंसा नहीं करेगी, लेकिन शर्त यह होगी कि नक्सली भी कोई हिंसा न करें। सीधा मतलब यह कि यदि नक्सली हिंसा नहीं छोड़ेंगे तो उनको कतई बख्शा नहीं जाएगा। फिर हिंसा या मानवाधिकार की कोई दुहाई न दे। जहां तक नक्सल अभियान के संदर्भ में राज्य की जरूरतों का सवाल है, गृह मंत्री ने मुक्त हृदय से हर तरह की मदद का आश्वासन देकर राज्य सरकार पर नक्सली गतिविधियों पर काबू पाने का दबाव बढ़ा दिया। इसके अलावा नक्सल निवारण अभियान में लगे केंद्रीय अ‌र्द्ध सैनिक बलों की सुविधाएं बढ़ाने का एलान कर उन्होंने जिस तरह उनकी हौसला आफजाई की, उससे यह अभियान और पुख्ता होने की उम्मीद बन गई है। दरअसल, नक्सलियों की मजबूती का एक ही कारण है, उनका आर्थिक तंत्र सुदृढ़ होना। इस पर चोट किया जाना, अव्वल तो इसको ध्वस्त किया जाना अत्यंत आवश्यक है। यह तभी संभव हो सकेगा, जब सुरक्षा बल उनकी घेराबंदी बढ़ा दें। उनके आवागमन और नेटवर्क पर नकेल कसने के बाद उनकी गतिविधियां स्वत: ढीली पड़ जाएंगी। इसके लिए सुरक्षा बलों को कुशल मार्गदर्शन और प्रोत्साहन की जरूरत होगी। स्वयं केंद्रीय गृह मंत्री ने उनको प्रोत्साहित करने में कोई कसर बाकी न रखी। जहां तक मार्गदर्शन का सवाल है, यह दिल्ली के बजाय रांची और संबंधित क्षेत्र से अधिक ताल्लुक रखता है। इस पर गौर करते हुए यदि सधे कदम उठाए जाएं तो गृह मंत्री ने जैसा केंद्र सरकार का इरादा जताया है, उसके अनुरूप नक्सलियों को उनके ही मांद में घेरकर दबोचने अथवा गोली का जवाब गोलियों से देने की रणनीति पर अभियान चलाने में सुविधा होगी। सरकार को किसी क्षेत्र विशेष में केंद्रित होने की जगह हर प्रभावित क्षेत्र में चौकस रहना होगा, ताकि जरूरत के मुताबिक संसाधनों का इस्तेमाल किया जाय। गृह मंत्री ने नक्सलियों और आदिवासियों के बीच फर्क करने का संदेश दे सुरक्षाबलों को बड़ी जवाबदेही सौंपी है, क्योंकि वर्षो से अभियान में जुड़े रहने के बावजूद यह पहचान आसान नहीं होगी।
[स्थानीय संपादकीय: झारखंड]
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नक्सलवाद की चुनौती

Wed, 24 Sep 2014

हाल के दिनों में गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने भारत में नक्सलवादी-माओवादी उभार के खतरे को खत्म करने के मद्देनजर सारंडा मॉडल का जिक्र किया। सारंडा मॉडल नक्सली क्षेत्रों में आमूल-चूल परिवर्तन की दिशा में एक सफल उदाहरण है। इस संदर्भ में उन्होंने कहा है कि देश के कुछ नक्सली क्षेत्रों में अंतरराष्ट्रीय साजिश रची जा रही है, जिससे निपटने के लिए अर्धसैनिक बलों और स्थानीय पुलिस को कड़े कदम उठाने होंगे। हैरत की बात है कि मौजूदा प्रधानमंत्री इस मसले पर चुप हैं, लेकिन उनके पूर्ववर्ती मनमोहन सिंह ने लगातार इस बात पर बल दिया कि यह भारत की आंतरिक सुरक्षा के मद्देनजर सबसे गंभीर चुनौती है और इसके मूलभूत सामाजिक-आर्थिक के साथ-साथ सामाजिक-राजनीतिक पहलू भी हैं।
फिलहाल देश के 88 जिलों की 31,400 ग्राम पंचायतों और 1,19,000 गांवों में वामपंथी चरमपंथ का प्रभाव है। इस समस्या से जो राज्य सर्वाधिक प्रभावित हैं उनमें झारखंड के कुल 24 में से 17 जिले, ओड़िशा के कुल 30 जिलों में से 18 और छत्ताीसगढ़ के कुल 27 में से 14 जिले शामिल हैं। इसी तरह पश्चिम बंगाल के 19 में 3 जिले, बिहार के 38 में 11, महाराष्ट्र के 36 में से 4, आंध्र प्रदेश के 13 में से 4, तेलंगाना के 10 में से 4, मध्य प्रदेश के 51 में से 11 जिले और उत्तार प्रदेश के 3 जिले भी इस समस्या से ग्रस्त है। इस मामले में सभी राज्यों की अपनी पृष्ठभूमि है, जैसे बिहार में जाति की प्रभावी भूमिका है। यहां पांच मुख्य लक्षण हैं जो इन क्षेत्रों में विशेष तौर से मेल खाते हैं। पहली बात यह कि इन क्षेत्रों में अनुसूचित जनजातियों की संख्या काफी है और यह बहुमत में है। दूसरी बात यह कि जनजातीय बहुल इन इलाकों में काफी सघन वन हैं। तीसरी बात माओवाद प्रभावित इन जिलों में प्रचुर मात्रा में खनिज उपलब्ध हैं, जिनमें कोयला, बॉक्साइट और लौह अयस्क शामिल हैं। चौथी बात कई राच्यों में माओवाद प्रभावित जिले राजनीतिक सत्ता की पहुंच से बहुत दूर हैं और इनका आकार बड़ा है। पांचवीं बात यह है कि बुरी तौर पर प्रभावित ऐसे तमाम क्षेत्र दो या तीन राच्यों के सीमावर्ती इलाकों में स्थित हैं। माओवादी विरोधी कोई भी रणनीति बनाते समय हमें इन बातों को ध्यान में रखना होगा। भारतीय राच्यों के इन नक्सल प्रभावित इलाकों में केंद्रीय अर्धसैनिक बलों की 71 बटालियनें और तकरीबन 71,000 सुरक्षा बलों को तैनात किया गया है। राच्य पुलिस बलों को सहयोग देने के मामले में इनकी बड़ी भूमिका है, जिन्हें खुफिया जानकारियों को इकट्ठा करने और माओवादियों के खिलाफ चलाए जाने वाले अभियानों में अनिवार्य रूप से आगे अथवा प्रथम पंक्ति में होना चाहिए। यही कारण है कि पिछले तीन दशकों से आंध्र प्रदेश इस समस्या से प्रभावी रूप से निपटने में सफल रहा है। इस समस्या से निपटने के लिए महज सुरक्षा अभियान काफी नहीं होंगे और ऐसा हो भी नहीं सकता। लोगों की दिनप्रतिदिन की समस्याओं के समाधान और विकास कायरें के माध्यम से ही हम इसका स्थायी समाधान खोज सकते हैं। ऐसा इसलिए, क्योंकि इनके अभाव में यहां के लोग खुद को अलग-थलग महसूस करते हैं।
वन प्रशासन अथवा प्रबंधन में व्यापक सुधार करके जनजातीय परिवारों के समक्ष आने वाली दिनप्रतिदिन की समस्याओं का समाधान आज वक्त की मांग है। वन नौकरशाही इन जनजातीय लोगों को अनावश्यक रूप से परेशान करती है, क्योंकि राच्य दर राच्य यह लोग भटकते रहते हैं अथवा आते-जाते रहते हैं। पिछले पांच दशकों में खनन और सिंचाई परियोजनाओं के कारण बड़े पैमाने पर इन्हें विस्थापित होना पड़ा है। बड़े पैमाने पर विस्थापित इन लोगों को पुनर्वास और पुनस्र्थापना के माध्यम से अभी भी संतुष्ट करना शेष है। सबसे खराब बात यह है कि इन जनजातीय वगरें को बार-बार विस्थापन का दंश झेलना पड़ रहा है। संसद द्वारा 2013 में पारित किए गए नए भूमि अधिग्रहण कानून के माध्यम से चीजों को दीर्घकालिक दृष्टि से सही रूप में हल करने की कोशिश की गई, लेकिन बाद में इसे कमजोर करने का काम किया गया। यदि ऐसा कुछ होता है तो माओवादियों को दुष्प्रचार करने का मौका मिलेगा। वास्तव में यह नक्सली नहीं हैं जिन्होंने अपनी विचारधारा को स्वीकृत कराने के लिए अनुकूल जमीन तैयार की, बल्कि यह सतत रूप से सरकारों की विफलता है जिनमें प्रभावित राच्यों के साथ ही केंद्र सरकार भी शामिल है। सरकारें गरीबों की मानवीय गरिमा और उनके संवैधानिक अधिकारों की रक्षा कर पाने में विफल रही हैं और इसी के परिणामस्वरूप हिंसा के फैलाव के लिए अनुकूल जमीन तैयार हुई, जिसने सामाजिक कल्याण के नाम पर नक्सलियों को मुखर होने का मौका दिया। इसी का जामा पहनकर नक्सलियों ने गुरिल्ला लड़ाई का आधार तैयार किया और लोगों की भर्तियां कीं। सबसे दुखद बात यह है कि इसमें महिलाओं और बच्चों को भी शामिल किया गया।
यह संभव है कि चरमपंथी समूहों को विदेशों से वित्ताीय और हथियारों की मदद मिल रही हो, लेकिन जमीनी सच्चाई यही है कि उनके विस्तार अथवा प्रभाव वृद्धि में घरेलू वजहें कहीं अधिक जिम्मेदार हैं और इसमें जनजातियों में व्याप्त असंतोष, उनके साथ भेदभाव और विस्थापन की समस्या मुख्य हैं। इस संदर्भ में तमाम सफल कहानियां हैं जिनसे हम सबक सीख सकते हैं। महाराष्ट्र के गढ़चिरौली जिले के मेंडा लेखा गांव में ग्रामसभा को खेती और बांस के व्यापार में पूर्ण नियंत्रण दिया गया है। माओवादी इसे पसंद नहीं करते, लेकिन ग्रामसभा इससे वित्ताीय रूप से सशक्त हुई है। इसी तरह सामुदायिक वन अधिकारों में सुधार और कानून में बदलाव के जो भी प्रयास किए गए हैं उनका अनुसरण किया जा सकता है।
इस संदर्भ में बदलाव का सर्वाधिक बेहतरीन उदाहरण झारखंड के पश्चिमी सिंहभूमि जिले के सारंडा क्षेत्र का है। जुलाई-अगस्त 2011 में सीआरपीएफ द्वारा दो दशकों तक माओवादी प्रभाव में रहे इस इलाके को मुक्त कराए जाने के बाद ग्रामीण विकास मंत्रालय ने बड़ी संख्या में विकास योजनाओं की शुरुआत की, जिनमें रोजगार सृजन, सड़क, घर निर्माण, जल आपूर्ति, वर्षाजल प्रबंधन, जीवनस्तर को बेहतर बनाने के साथ महिलाओं के लिए स्वयं सहायता समूहों की शुरुआत की गई। नागरिक प्रशासन की विश्वसनीयता बहाल की गई। इससे सकारात्मक बदलाव हुआ और एक नए विश्वास का संचार हुआ। सारंडा मॉडल को झारखंड, पश्चिमी बंगाल और ओड़िशा के भी कुछ इलाकों में अपनाया गया। बंगाल में ऐसी ही पहल करते हुए माओवादियों के गढ़ जंगलमहल क्षेत्र में राजनीतिक गतिविधियों को बहाल किया। यह बहुत महत्वपूर्ण बात है। इससे माओवादी ढांचा कमजोर हुआ। जहां-जहां राजनीतिक पार्टियों ने अपनी स्वाभाविक भूमिका निभानी छोड़ी वहां-वहां चरमपंथी संगठनों ने खाली स्थान को भरने का काम किया। अकेले विकासवादी रणनीति काफी नहीं होगी और न ही अर्धसैनिक बलों पर आधारित रणनीति पर्याप्त होगी। पूर्व की गलतियों में सुधार और जनजातीय समुदायों की चिंताओं पर ध्यान दिए बिना हम नक्सलवाद को समूल नष्ट नहीं कर सकते।
[लेखक जयराम रमेश, पूर्व केंद्रीय मंत्री हैं]